"श्री प्राणनाथ ज्ञान केंद्र" नामक यह सार्वजनिक संस्था मुम्बई महानगरी के बोरीवली में संस्थापित है। श्री ५ नवतनपुरी धाम ,जामनगर,गुजरात के तत्कालीन गादीपति १०८ श्री धर्मदास महाराज के निर्देशानुसार इस संस्था को सन १९९२ में रोपा गया। उन्होंने ही अपने छोटे भाई , नवतनपुरी के श्री लक्ष्मीदास बाबाजी के करकमलों द्वारा , इस संस्था का उदघाटन कराया। इसीसे यह संस्था श्री ५ नवतनपुरी धाम की शाखारूप स्थान सिद्ध है। ३ मई १९९२ को संस्थापित श्री प्राणनाथ ज्ञान केंद्र के संस्थापक "परम पूज्य वाणी आचार्य १०८ श्री दीनदयाल महाराज "हैं। इन महान , ओजस्वी , तेजस्वी संतने कड़े परिश्रम के आधार पर इस संस्था को उत्तरोत्तर उन्नतिशील बनाया है। श्री प्राणनाथजी के नाम पर स्थापित यह संस्था "यथा नाम तथा गुण" की कहावत को सार्थक करते हुए महामति श्री प्राणनाथजी प्रणीत तारतम ज्ञान का ही प्रचार - प्रसार करती आयी है। इस संस्था के प्राण स्वरूप परम आदरणीय श्री दीनदयाल महाराज ने इसे आध्यात्मिक तालीम केंद्र के रूप में प्रसिद्ध बनाया है। इस संस्था की सबसे निराली बात यह है कि, निरंतर २५ वर्षों से यहाँ पर ब्रह्मविद्या - तारतम ज्ञान के ही चारों विषयों का ज्ञान परोसा गया है। इन्हीं चार विषय, जैसे- विराट , चर्चनी , बीतक एवं श्री मुख वाणी के ज्ञान से ही यहाँ पर विद्यार्थियों को निपुण बनाया गया है। अपनी जड़ जमाकर छँटी हुए इस संस्था के लिए येही सबसे गर्व की बात है कि सम्पूर्ण चौदे लोकों में यह एक मात्र ऐसी संस्था है, जहाँ केवल निजानंद स्वामी सदगुरु श्री देवचन्द्रजी एवं महामति श्री प्राणनाथजी प्रणीत तारतम ज्ञान का ही प्रचार - प्रसार होते आया है। परम पूज्य बाबाजी की दया एवं श्री दीनदयाल महाराज के सान्निध्य को प्राप्त कर विकसित इस संस्था का ध्येय मात्र इतना ही है की सुन्दरसाथ के दिल - दिमाग में तारतम ज्ञान को अंकुरित किया जा सके। फिर चाहे यह सत्संग - भजन - कीर्तन के माध्यम से हो , अथवा विद्यार्थियों को तालीम प्रदान करते हुए हो , या फिर साहित्य - ग्रंथों के प्रकाशन के माध्यम से हो। ज्ञान - दीपक रूप ४0 ग्रंथों के प्रकाशन की सेवा इस संस्था ने उठाई है। इसी निमित्त संस्थापक श्री दीनदयाल महाराज को तीनों पुरी धाम के आचार्यों ने "श्री प्राणनाथ साहित्य भास्कर" की पदवी से सम्मानित किया।
आध्यात्मिक तालीम का केंद्र होने के साथ ही इस संस्था में श्री कृष्ण प्रणामी धर्म के अंतर्गत मान्य , मुख्य- मुख्य कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है। मई महीने में अपने वार्षिक महोत्सव को मनाते हैं , पुनः गुरु पूर्णिमा के उत्तम दिन पर गुरुपूजन का लाभ लिया जाता है। महीनेभर बीतक कथा रसपान से सुन्दरसाथ की आत्म-तृप्ति होती है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी एवं श्री प्राणनाथ जयंती के महत्त्वशाली दिनों को बड़ी ही धूम - धाम से , शोभायात्रा सहित आयोजित किया जाता है। शरद्पूर्णिमा में रास रमण एवं पूज्य गुरुजी श्री दीनदयाल महाराज के जन्मदिन का कार्यक्रम बड़ी उत्सुकता से मनाया जाता है। मागसर सुदी नौमी के दिन श्री सदगुरु - इंद्रावती मिलाप निमित्त गोटा पारायण सहित भजन - कीर्तन द्वारा धूम मचती है। पुनः परम पूज्य बाबाजी के धाम गमन तिथि पर भी अखंड तथा गोटा पारायण सहित भंडारा लगाते हैं। इस प्रकार वर्षभर के कार्यक्रमों समेत पाठ - पारायण, दैनिक सेवा - पूजा विधि , पुनः गुरुवार के महिला - मंडल को निरंतर २५ वर्षों से संचालित करते हुए यह संस्था अत्यंत महिमान्वित होकर उभरी है।वर्तमान आधुनिक युगमें , इन्टरनेट के माध्यम से महामति श्री प्राणनाथजी के तारतम ज्ञान को देश - विदेश के तमाम सुन्दरसाथ एवं जिज्ञासु आत्माओं तक पहुँचाने का दृढ़ संकल्प लिए हुए यह संस्था वेब - साइट के माध्यम से अपने द्वारा प्रकाशित किये गए तमाम ग्रंथों को प्रसारित कर रही है। परात्पर अक्षरातीत ब्रह्मधाम की आत्माएँ , जो विश्वभर में विचरी हुई हैं , उनके ह्रदय में इस ब्रह्मज्ञान का अंकुर प्रस्फुटित करने के विचार से ही यह कदम बढ़ाया गया है।
अंततः अपने तमाम सेवा - कार्यों को निभाती हुई एवं भविष्य में भी अपने संप्रदाय के ज्ञान , सिद्धान्त और पद्धति अनुसार चलने का प्रण लिए हुए यह संस्था कर्तव्यनिष्ठ होकर आगे बढ़ रही है।
परम पूज्य वाणी आचार्य १०८ श्री दीनदयाल महाराज को "श्री प्राणनाथ साहित्य भास्कर " की पदवी से तीनों पुरी धाम के आचार्यों और सज्जनों ने विभूषित किया है। इस कलियुग के बीच में श्री प्राणनाथजी के तारतम संबंधी ज्ञान को सुन्दरसाथ तक पहुँचाने के लिए आपने कुल ४० ग्रंथों का प्रकाशन किया है। इन सार गर्भित ग्रंथों के माध्यम से आपने अपने जीवन का सार रूप ज्ञान , सुन्दरसाथ समुदाय पर न्योछावर कर दिया।
क्रांतिकारी स्वभाव युक्त इन वरिष्ठ प्रचारक के प्रेरणा - स्रोत इनके गुरु नवतनपुरी (गुजरात) के "श्री लक्ष्मीदास बाबाजी " हैं। बाबाजी के ही आशीर्वाद से , आपने धर्मक्षेत्र में विशाल योगदान दिया है। वाणी विशारद १०८ श्री लक्ष्मीदास बाबाजी से ,निरंतर सात वर्षों तक मेहनत करते हुए आपने विराट , चर्चनी , बीतक एवं श्री मुखवाणी की तालीम ली। पुनः इसी ज्ञान को सुन्दरसाथ के दिल-दिमाग में पहुँचाने का दृढ़ संकल्पवत लक्ष्य लेकर आपने कई विद्यार्थियों को तैयार किया। और सार गर्भित कई ग्रंथों का प्रकाशन भी किया। जीवनभर की तमाम कसौटियों पर खरा उतरते हुए इस क्षणभंगूर , परंतु देवदुर्लभ मानव - तन को चन्दन की तरह रगड़-रगड़कर अपने धर्म की सेवामें अर्पित कर दिया। और क्यों न हो ? यह तो गुरुप्रवर लक्ष्मीदास बाबाजी की दया का ही प्रतिफल है।
आपका जन्म ई .स .१९३७ के आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की पूनम को , सोमवार के दिन हुआ। वनस्पतियों की हरियाली से आच्छादित सुरम्य पहाड़ी अंचल कालिम्पोंग के पूर्व में अवस्थित , अरूणोदय की आभा - प्रभा से युक्त लोले गाँव आपकी जन्मभूमि रही , जहाँ आपने खेलने - कूदने , अध्ययन करने , गाय - भैंस चराने की घड़ियाँ व्यतीत कीं। १७ वर्ष की उमर में ७० फीटकी ऊँचाई से , पेड़ से गिरने पर आपकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। परंतु फिर भी , हार न मानते हुये, अपाहिज हुये शरीर से ही , आपने धर्म परायण होकर धर्म कार्यों पर जीवन अर्पण कर दिया। नाजूक स्वास्थ्य के चलते भी आपने धर्म प्रचार में कमी नहीं रखी ! नेपाल स्थित धरान मंदिर में आपने निरंतर १२ वर्षों तक धर्म प्रचार किया। पुनः ई.स. १९९२ में बोरीवली , मुम्बई में "श्री प्राणनाथ ज्ञान केंद्र चेरिटेबल ट्रस्ट " की स्थापना की। गुरुप्रवर बाबाजी के हस्त-कमल से इसका उदघाटन कराते हुए ,नवतनपुरी की शाखा रूप इस संस्था का सिंचन , आपने श्री प्राणनाथजी के तारतम ज्ञान रुपी जल द्वारा किया। इष्टों में परात्पर इष्ट , अक्षरातीत श्री कृष्ण रूप "श्री प्राणनाथजी " के ही ज्ञान का प्रचार आप करते ही आये हैं। अपने वज्रवत मजबूत मनोबल और आत्म-विश्वास की नीव पर स्थापित इस संस्था को , आपने विराट , चर्चनी , बीतक एवं वाणी के ज्ञान से परिपक्व बनाया।
आप त्यागमूर्ती एवं वयोवृद्ध संत के रूप में परिचित हैं। धर्म को दीमक की तरह खा जानेवाले धर्म कंटकों को आपने भली - भाँति सबक सिखाया है ! नेपाल के सनातनी ब्राह्मणोंने "विवरण पत्र" नामक पुस्तिका प्रकाशित कर , इस पुस्तिका के माध्यम से प्रणामी धर्म सिद्धान्त एवं मान्यताओं पर कुठाराघात कर ,पूरे नेपाल में अशांतिपूर्ण वातावरण खड़ा कर दिया था। तब आपने इन वैदिक सनातनियों को मुख तोड़ जवाब पहुँचाने का निश्चय किया। ई. स. १९७८ में आपकी लेखनी से " विवरण पत्र की समीक्षा " नामक पुस्तिका का जन्म हुआ , जिसने प्रणामी संप्रदाय की मान्यताओं पर लगे हुए लांछनों को निर्मूल कर दिया। अपने धर्म की रक्षा करने के लिए आप दृढ़तापूर्वक अडिग रहे।
पुनः दूसरी बार ई.स. १९९८ में जगदीशचंद्र आहुजा द्वारा प्रकाशित "संसार और मेरा भरतार " नामक पुस्तक में लिखी अनर्गल बातों का करारा जवाब , आपने "संसार और मेरा भरतार की समीक्षा " नामक पुस्तक के द्वारा दिया। और मानहानी का दावा कर रहे वादी - पक्ष ने दर्ज किये हुए मुक़दमे में , उन्हें हराकर , इस चुनौतीपूर्ण कार्य को अंजाम दिया। वस्तुतः आप जैसे महामनस्वी व्यक्ति की हाजरी ही समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत है। आप जैसे ओजस्वी , तेजस्वी , धर्मवीर महापुरूष का समाज के बीच होना , ये सम्पूर्ण समाज के लिए अहोभाग्य की बात है। आपके इन्हीं कार्यकलापों से प्रभावित होकर तीनों पुरी धाम के आचार्यों ने आपको " प्राणनाथ साहित्य भास्कर " की पदवी से सम्मानित किया। निस्संदेह आप जैसे महापुरूष को " शलाका पुरूष" की संज्ञा देना अतिशयोक्ती न होगी !
सदगुरु श्री देवचन्द्रजी एवं महामति श्री प्राणनाथजी के कथनानुसार यह दिव्य तारतम ज्ञान तो " पसरसी चौदे भुवन " अर्थात इस ब्रह्मज्ञान - तारतम ज्ञान का संचार तो चौदह ही लोकों में होगा। इस वेब साइट के माध्यम से , देश - विदेशों में उतरे हुए एवं विभिन्न जाती - वर्णों में फैले हुए , उन धामस्थ सुन्दरसाथ तक यह तारतम ज्ञान पहुँचाने का प्रयास किया गया है। इसके द्वारा इस ज्ञान के प्रति आकर्षित हुई जिज्ञासु आत्माएँ इन ग्रंथों को निःशुल्क डाउनलोड करते हुये , अपार लाभ उठा सकेंगे। इन सार गर्भित ग्रंथों के माध्यम से , आत्मज्ञान की पिपासु आत्माओं में अवश्य ही धाम का अंकुर प्रस्फुटित होगा। इसी आशा के साथ और तमाम वाचकवृंदों में निम्नोक्त आह्वान करते हुए इस वेब साइट पर तारतम ज्ञान संबंधी ग्रंथोंका प्रकाशन किया जा रहा है, जैसे - "सूता होए सो जागियो , जागा सो बैठा होए । बैठा ठाढ़ा होइयो , ठाढ़ा पाऊँ भरे आगे सोए।। " -: प्रणाम :-
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